सत्यार्थ /संवाददाता मो.सोहेब अख्तर
सैयद इब्राहिम हुसैन खान का मकबरा जुआरियों और नशेरियों की गिरफ्त में।
प्रशासन और जनप्रतिनिधियों ने मिलकर इस धरोहर के अस्तित्व को नेस्तनाबूद कराने पर आमादा।
जनप्रतिनिधि वोट के लिए, तो जनसेवक के लिए कोई मतलब की चीज नहीं दिखती यह इमारत।
मध्यकालीन इमारत इनकी सुरक्षा और संरक्षण की फेहरिस्त में नहीं।
भागलपुर (सईद अनवर)
सैयद इब्राहिम हुसैन खान मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल (1605-27 ई. वी.) में बंगाल के गवर्नर जनरल थे। और साम्रज्ञी नूरजहां की बहन के पति भी थे। इब्राहिम एक बहादुर सेनापति थे और इनकी बहादुरी की कद्र करते हुए मुगल शासन ने उन्हें मरणोपरांत “फतेह जंग” की उपाधि प्रदान की थी।
सैयद इब्राहिम हुसैन खान का मकबरा अपनी विशिष्ट वास्तुकला के कारण अत्यंत भव्य दिखता है और अपने बगल से आने जाने वाले व्यक्ति को एकबारगी ध्यान बरबस खींचने पर मजबूर करता है। यह मकबरा करीब 80 फीट चौड़ा और 70 फीट लंबा है, तथा 20 फीट ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। मकबरे के चारों तरफ से प्रवेश का कभी रास्ता था,पर अतिक्रमणकारियों ने तीन रास्ते को कब्जा कर घरों का निर्माण कर लिया है। इस मकबरे में पांच गुंबदे बनी हुई है जिसमें से चार छोटे आकार की है, और एक बड़ी है। मकबरा करीब 120 फीट लंबे -चौड़े चहार दिवारी के बीच स्थित है। मकबरे के चारों तरफ 1989 से पहले खुली जगह थी और एक शानदार फुलवारी हुआ करता था। पर बीते साढ़े तीन दशकों से स्थानीय जनप्रतिनिधि और एक पूर्व मेयर की शह पर इसका अतिक्रमण करा दिया गया। बाहर से आये लोगों ने झुग्गी झोपड़ियां और गगनचुंबी इमारतें बना लिया है। निगम और स्थानीय जन प्रतिनिधि ने यहां रहने वालों को सारी सहूलियतें भी प्रदान कर दिया है। सड़के, बिजली, पानी सभी चीज उन तक पहुंचा दी गई है।
ऐतिहासिक विवरण के अनुसार इब्राहिम करीब 1614 ईस्वी में भागलपुर आए थे। जिस इलाके में उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया उसे मुगलपुरा मोहल्ले के नाम से जाना जाता है जो कि शहर के मुजाहिदपुर थाना सर्किल अंतर्गत पड़ता है। इतिहास के पन्नों में दर्ज है की,जब शहजादा खुर्रम (शाहजहां) ने 1623 ईस्वी में अपने वालिद बादशाह जहांगीर के खिलाफ बगावत बोल दिया और बुरहानपुर( उत्तर प्रदेश) के रास्ते बंगाल में प्रवेश कर गया, तो इब्राहिम को बगावत कुचलने की जिम्मेदारी दी गई थी।मालूम हो की उन दिनों राजमहल राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था, और इसे ‘पूर्व का प्रवेश द्वार’ भी कहा जाता था। और यही से शहजादा खुर्रम ने मुगल अधिकारियों और स्थानीय राजाओं के सहयोग से बंगाल- बिहार पर कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया था।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि बागी शहजादा का बुरहानपुर से पीछा करते हुए जहांगीर के दूसरे साहेबजादा शहजादा परवेज और उनके सेनापति महाबत खान भागलपुर आए थे। बागी शहजादा खुर्रम को शिकस्त देने के लिए एक संयुक्त रणनीति बनाई गई जिसके तहत महाबत खां और शहजादा प्रवेज़ गंगा के दक्षिणी तट से राजमहल की तरफ बढ़े,जबकि इब्राहिम खान को गंगा पार कर उतरी तट से शहजादा के विरुद्ध भेजा गया। गंगा पार कोशी तट पर शहजादा खुर्रम समर्थक राजाओं से आलमनगर में युद्ध हुआ जिसमें इब्राहिम खान विजयी रहे। परंतु आगे एक दूसरे युद्ध में नूरपुर के पास इनकी सेना पराजित हो गई। कहा जाता है कि इनका सिर कलम कर भागलपुर जिला मुख्यालय से करीब 120 किलोमीटर दूर स्थित राजमहल खुर्रम के पास भेज दिया गया और उनके सिर कटी लाश धड़ को उनके घायल घोड़े पर लाद कर गंगा के इस पार भागलपुर भेज दिया गया। हालांकि लड़ाई में इब्राहिम खान पराजित रहे। परंतु अपनी बहादुरी से इन्होंने गंगा के उत्तर में शहजादा के समर्थकों को रोका फलत: मजबूर होकर शहजादा खुर्रम को बिहार छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा और आखिरकार उसे शहंशाह जहांगीर के समक्ष आत्म समर्पण करना पड़ा। सिपहसालार इब्राहिम खान के सम्मान में गंगा तट पर खंजरपुर में उनका मकबरा बनाया गया और मरणोपरांत उन्हें ‘ फतेह जंग ‘के लकव से नवाजा गया। मकबरे के अंदर तेरह कब्रे हैं जो इब्राहिम खान के रिश्तेदार बताए जाते हैं। एक कोने पर इब्राहिम के वफादार घोड़े की भी कब्र स्थित है। राजमहल में जहां उनका सिर दफनाया गया वहां भी एक जैसा मकबरा बनाया गया। पत्रकार कमर अमान के अनुसार ‘एमिनेंट मुस्लिमस ऑफ भागलपुर’ और लंदन स्थित कैंब्रिज पुस्तकालय के गैजेट में विस्तृत उल्लेख मिलता है। सैयद इब्राहिम हुसैन के वंशज आज भी मुगलपुरा में निवास करते हैं। डॉक्टर इमरान सुबैर भागलपुर के मारूफ शख्सियत रहे मरहूम कासिम हुसैन के नवासे का स्थाई निवास है। मालूम हो कि कासिम हुसैन भागलपुर नगर पालिका के अध्यक्ष भी रह चुके हैं, और पहले मुस्लिम वकील होने का भी इनको श्रेय जाता है। कासिम हुसैन की बेटी फातिमा ‘सैयद मीरजान’ जिनके नाम पर मिरजान मोहल्ला का नाम पड़ा उनकी नवासी थी। स्कॉटिश चिकित्सक और भूगोल विद फ्रांसिस बुकानन भी तकरीबन 1810 ईस्वी में इब्राहिम के मकबरे पर पहुंचे थे। और इसे पूर्वी बिहार का एक ‘अमूल्य धरोहर’ बताया था। यही नहीं 1880 में विदेशी फोटोग्राफर हेनरी बैली वादे गैरिक ने ‘द लिस्ट ऑफ़ मेडीएवल मॉन्यूमेंट इन भागलपुर’ में वर्णन है की यह मकबरा बहुत ही भव्य और सुंदर रूप में उन्होंने देखा था। उन्होंने अपने विवरण में यह भी बताया कि सन 1845 में तत्कालीन मजिस्ट्रेट ने इसे मरमत करवाया था।सैयद इब्राहिम का मकबरा दिल्ली के हुमायूं किला की प्रतिकृति लगती है। इसकी दीवारें चुने सुर्खी और इसके चौखट पर संगेअख़बत पत्थर लगी हुई थी। इस मकबरे की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि 20 फीट ऊंचे चबूतरे पर कब्रों को प्रतीकात्मक रूप से बनाया गया है, जबकि वास्तविक 20 फीट नीचे इनकी क़ब्रे हैं। दीवारों पर कभी प्लास्टर के झड़ने पर फारसी भाषा में लेख उत्कीर्न नजर आते हें।तवारीख़ के पन्नों में 17वीं शताब्दी का यह मकबरा प्रशासनिक उदासीनता और दिन प्रतिदिन अतिक्रमणकारियों के बुलंद होते हौसले ने मकबरे के आसपास के लोगों द्वारा घर बना लिया गया है। मल मूत्र मकबरे पर त्यागा जा रहा है। कोई भी सुरक्षा का इंतजाम नहीं है कि यहां आने वाले पर्यटक अपने को सुरक्षित महसूस कर सके।यही नहीं खबर संकलन के लिए वीडियो आदि बनाना भी जान जोखिम में लेकर यहां पहुंचना पड़ता है। जो भी इलेक्ट्रॉनिक इनफ्लुएंसर यहां आते हैं यहां पर रहने वाले उन्हें वीडियो बनाने से रोकते हैं,और नहीं रुकने पर उनसे मारपीट भी की जाती है। हालांकि बताते चलें कि अब किसी को इस धरोहर को लिखने में और न दिखाने की दिलचस्पी है मालूम हो कि इब्राहिम का मकबरा वर्ष 2011 से संरक्षित धरोहर का दर्जा प्राप्त है। और यह शहर के हृदय स्थल खंजरपुर जो भागलपुर स्टेशन से महज 3 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। अगर कोई यहां पहुंच भी गए तो सकरी रास्तों से दोनों तरफ झुग्गियां को पार करते हुए जाना जान खतरे में डालना है। शहर की चौक चौराहों पर एलडी डिस्प्ले पर दिखाया जाता है। पर हकीकत यह है कि यहां पर पहुंचने के तीन और चार पहिया तो छोड़ दीजिए बाइक का रास्ता भी नहीं है। इब्राहिम के मकबरे को लेकर बस यही कहा जा सकता है कि ‘ सूरज कि रमक छोड़ जाऊंगा, मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊंगा’।