वैसे तो व्यवहार में नाना विधान और मत प्रचलित हैं किन्तु किसी तिथि विशेष में किया गया श्राद्ध अत्यंत उत्कृष्ट फल
देने वाला होता है। स्वयं देवगुरु वृहस्पति ने इसे निर्दिष्ट किया है-
पितृदेवा मघा यस्मात्तस्मात्तास्वक्षयं समृतम
पित्र्यं कुर्वन्ति तस्यां तु विशेषेण विचक्षणा:
तस्मान्मघां वै वांछन्ति पितरो नित्यमेव हि
पितृदैवभक्ता ये तेSपि यान्ति परां गतिम् – वायुपुराण अध्याय 19
मघा नक्षत्र एक ऐसी नक्षत्र है जिसमें पितरों के प्रति किया गया श्राद्ध सर्वकामना पूर्ण करने वाला होता है। नक्षत्र मण्डल की यह दशवीं नक्षत्र है और परिमण्डल चक्र में इसे आकाश वासी स्थान मिला है। यदि कुण्डली देखें तो भी दशवाँ स्थान पिता का ही होता है। त्रिकोण में शेष समस्त नक्षत्र इसके विपरीत दशाओं में आते हैं।
आचार्य वेणीमाधव के अनुसार –
यस्यास्तु गम्यतां मेघे माघे पितृ देवादिका:.
गगने एव स्थितां शस्तः श्राद्ध तर्पण क्रियादिकम
अर्थात गगन मंडल से अंतरिक्ष के चतुर्दिक देवगणों के साथ निवास करने वाले देवरूप पितृगण मघा नक्षत्र में किये जाने वाले श्राद्ध-तर्पण की तरफ दृष्टि लगाये रहते हैं।
वैसे प्रचलन में लोग विविध आचार्यों-पुरोहितों के निर्देशानुसार भिन्न भिन्न तिथियों में अपने पितरों का श्राद्ध कर्म करते हैं, लेकिन यह विधान यमराज ने शशविंद को बताया था जिसके पीछे कारण था। शशविंद एक निष्काषित क्षत्रिय था। जिसने लोभ, ईर्ष्या तथा अहंकार के कारण वायस्क माह (अश्विन) में अपने सम्बन्धियों तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों को निचा दिखाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से कैलाश पर्वत के उत्तर महुध पर्वत पर भिन्न भिन्न पशु-पक्षियों के माँस का आहार करने लगा। पितर जो अभी श्राद्ध-तर्पण आदि के अभाव में अतृप्त रूप से कष्ट पाते हुए यतस्ततः विचरण कर रहे थे, टकटकी लगाये अपने पुत्रादिकों की तरफ देख रहे थे। वाशु वंश जिसमे शशविन्द उत्पन्न हुआ था उसके कुलगुरु क्रतुपल थे। वह बहुत दुखी होकर महुध पर्वत पर पहुंचे. और येन केन प्रकारेण शशविन्द से तर्पण आदि कर्म करवाया। उन्होंने उसके स्वभाव के अनुसार मांस आदि प्रदान करवाया।
वायुपुराण के 20वें अध्याय में वृहस्पति ने यमराज के इस कथन को बताया है।क्योंकि ऊपर बताया गया श्राद्ध विधान पितरों की रूचि का नहीं है। मांस आदि का प्रदान करना एक पापपूर्ण कृत्य है। पितृगण इससे रुष्ट ही होते हैं। उनका कथन है कि-
यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि व्याख्याकारों ने आजेन का अर्थ बकरा का माँस लगाया है। जबकि यह एक तरह का लाल चावल होता है जो प्रायः तालाबों या पानी वाले गड्ढे दार खेत में उत्पन्न धान से निकलता है। जिसे देहातों में आज भी अजना का चावल कहा जाता है। उपर्युक्त श्लोक का अर्थ यह है कि-
“पितृगण कहते हैं- क्या मेरे कुल में ऐसा कोई सुपुत्र जन्म लेगा जो त्रयोदशी तिथि को गजच्छाया योग में हमारे लिये मधु, घृत, तिल तथा दूध से बना पकवान तथा अन्न का दान करे? वर्षा ऋतु में विशेषकर मघा नक्षत्र में सम्पूर्ण लाल रंग के अजान के चावल का खीर प्रदान करे।”