Advertisement

एकजुट भारत हमेशा अजेय है-डॉ. राज नेहरू : संस्थापक कुलपति, श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय एवं मुख्यमंत्री हरियाणा के ओएसडी

एकजुट भारत हमेशा अजेय है-डॉ. राज नेहरू : संस्थापक कुलपति, श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय एवं मुख्यमंत्री हरियाणा के ओएसडी

पलवल-2 सितम्बर
कृष्ण कुमार छाबड़ा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में हमें स्मरण कराया कि “सामंजस्य में जीना हमारी संस्कृति है”। उन्होंने कहा कि सहस्राब्दियों की विविधताओं के बावजूद अखंड भारत के लोग 40,000 वर्षों से एक ही डीएनए साझा करते आए हैं। उनका संदेश स्पष्ट था—भारत की असली शक्ति उसकी एकता है। जब हम साथ खड़े होते हैं, तो कोई शक्ति हमें पराजित नहीं कर सकती; और जब हम बिखरते हैं, तो छोटे से छोटे संकट भी भारी पड़ जाते हैं। यही शाश्वत सत्य उन लोगों ने सबसे पहले समझा जो भारत पर शासन करना चाहते थे। अंग्रेजों ने आरंभ से ही यह अनुभव कर लिया था कि भारत को केवल बल से नहीं जीता जा सकता, बल्कि विभाजन के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता है। इसीलिए ईस्ट इंडिया कंपनी का वाणिज्यिक उपक्रम धीरे–धीरे जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय खाँचों में समाज को बाँटकर साम्राज्य में बदल गया।

1857 का विद्रोह इस साम्राज्य की नींव हिला गया। सबसे बड़ी चुनौती अंग्रेजों के लिए विद्रोह का पैमाना नहीं, बल्कि उसमें झलकती एकता थी—हिंदू–मुस्लिम और विभिन्न जातियाँ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी थीं। बहादुरशाह जफर जैसे मुस्लिम सम्राट और रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे जैसे हिंदू सेनानायक साथ लड़ रहे थे। अंग्रेजों के लिए यह सबसे बड़ा भय था—एकजुट भारत।

इसी अनुभव ने औपनिवेशिक सत्ता को “फूट डालो और राज करो” की नीति को और परिपक्व बनाया। जनगणना के जरिये जातीय खाँचों को कठोर बनाया गया, पृथक निर्वाचन प्रणाली से समुदायों को आपस में भिड़ाया गया, और भाषा–क्षेत्र के नाम पर दरारें डाली गईं। 1905 का बंग–भंग, 1909 के मार्ले–मिंटो सुधार, 1932 का कम्युनल अवॉर्ड, यहाँ तक कि 1871 से शुरू औपनिवेशिक जनगणना—सभी ने विभाजन की खाइयों को गहरा किया।

मुस्लिम लीग की स्थापना (1906) को प्रोत्साहन देकर, अंग्रेजों ने हिंदू–मुस्लिम विभाजन को संस्थागत रूप दिया। इसी राजनीति ने आगे चलकर विभाजन की भूमि तैयार की।

ऐसे ही एक उदाहरण में, 1947 के सिलहट जनमत संग्रह में दलित वोट निर्णायक साबित हुए। जोगेंद्रनाथ मंडल, जिनके विश्वास पर अनेक दलितों ने पाकिस्तान का समर्थन किया, जल्द ही समझ गए कि यह छलावा था। पाकिस्तान में दलित–मुस्लिम भाईचारा टिक न सका और हिंदुओं पर अत्याचार, जबरन धर्मांतरण तथा हिंसा ने सच्चाई उजागर कर दी। अंततः मंडल को त्यागपत्र देकर भारत लौटना पड़ा।

ये घटनाएँ आकस्मिक नहीं थीं, बल्कि औपनिवेशिक सत्ता की सोची–समझी चालें थीं।

आज, दुखद रूप से, वही औपनिवेशिक पटकथा नए रूपों में लौटती दिख रही है। 2014 से नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भारत की बढ़ती शक्ति और एकता ने कुछ घरेलू–विदेशी शक्तियों को असहज किया है। जब सीधे चुनावी पराजय संभव नहीं रही, तो सामाजिक विभाजन को हवा देना नया हथियार बना। जाति जनगणना की माँग, “डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्वा” जैसे सम्मेलन, पाश्चात्य फाउंडेशनों की वित्तपोषित परियोजनाएँ, “सनातन धर्म उन्मूलन” जैसे वक्तव्य, विश्वविद्यालयों में राष्ट्रविरोधी नारे—ये सब उसी औपनिवेशिक खेल की पुनरावृत्ति प्रतीत होते हैं।

इतिहास गवाह है कि बिखरा हुआ भारत असहाय था, और एकजुट भारत अजेय। यही कारण है कि आज भी भारत के विरुद्ध आंतरिक–बाह्य चुनौतियों का सबसे बड़ा प्रतिकार केवल एकता है।

जैसे फिल्म ग्लैडिएटर में सैनिकों ने एक पंक्ति में खड़े होकर आक्रमण रोक दिया, वैसे ही हमें भी कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना है। हमारी ढाल है एकता और हमारी तलवार है साझा दृष्टि।

श्री अरविन्द ने भवानी मंदिर में लिखा था—
“भारत केवल मिट्टी का टुकड़ा नहीं, न ही भाषण की अलंकारिकता; वह एक शक्ति है, एक देवत्व है, एक जीवंत सत्ता है।”

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!