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पितृपक्ष पर विशेष ज्ञातव्य विषय! अवश्य ध्यान से पढ़े!!

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Rajat Bisht
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• पितृपक्ष पर विशेष ज्ञातव्य विषय! अवश्य ध्यान से पढ़े!!

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पितृपक्ष : श्राद्ध के द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुष्य को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा सुख स्वर्ग आदि प्रदान करते है!!श्राद्ध के योग्य समय हो या न हो तीर्थ में पहुंचते ही मनुष्य को सर्वदा स्नान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिये!!

शुक्ल पक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष ओर पूर्वाह्न की अपेक्षा अपरान्ह काल श्राध्द के लिए श्रेष्ठ माना जाता है!!

सायंकाल श्राद्ध नही करना चाहिए। सायंकाल का समय राक्षसी वेला नाम से प्रसिद्ध है, जो सभी कार्यो में निन्दित है!!

रात्रि में श्राध्द नही करना चाहिए, उसे राक्षसी कहा गया है! दोनो संध्याओं में तथा पूर्वान्हकाल में भी श्राद्ध नही करना चाहिए!

चतुर्दशी को श्राध्द करने से कुप्रजा (निन्दित सन्तान) पैदा होती है, परन्तु जिसके पितर युद्ध मे शस्त्र से मारे गये हो, वे चतुर्दशी को श्राद्ध करने से प्रसन्न होते है!!

चतुर्दशी को श्राद्ध नही करना चाहिए। जो चतुर्दशी को श्राध्द करता है, उसके घर मे नवयुवकों की मृत्यु होती है तथा श्राध्द करने वाला स्वयं भी युद्ध का भागी होता है (जिनकी मृत्यु शस्त्र से न होकर स्वाभाविक ही चतुर्दशी को हुई हो उनका श्राद्ध दूसरे दिन अमावश्या को करना चाहिए)

दिन के आठवें भाग मुहूर्त में – जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम ‘कुतप’ है। उसमें पितरो को दिया गया दान अक्षय होता है!!

कुतप, खड्गपत्र, कम्बल, चांदी कुंश, तिल गौ और दौहित्र – ये आठो कुतप नाम से प्रसिद्ध है!!

श्राध्द में तीन वस्तुओ बहुत पवित्र होती है- दौहित्र, कुतपकाल और तिल।

श्राध्द में तीन वस्तुएं प्रसंशनीय होती है – बाहर -भीतर की शुद्धि, क्रोध न करना और जल्दवाजी न करना!!

श्राध्द सदा एकांत में करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण नीच मनुष्यों की दृष्टि पड़ने पर वह पितरो को नही पहुंचता।

दुसरो की भूमि पर श्राद्ध नही करना चाहिये।

जंगल, देव मंदिर, पुण्यतीर्थ और पर्वत – ये दुसरो की भूमि में नही आते, क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नही होता।

मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण की परीक्षा न करे पर पितृकार्य मे तो प्रयत्न पूर्वक ब्राह्मण की परीक्षा अवश्य करे!!

श्राध्द में पितरो की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।।

श्राध्द के समय ब्राह्मण को आमंत्रित करना अत्यावश्यक है। जो विना ब्राह्मण के श्राध्द करता है, उसके पितर भोजन नही करते तथा श्राप देकर लौट जाते है! ब्राह्मणहीन श्राध्द करने से मनुष्य महापापी होता है!!

श्राध्द का भोजन स्त्री (ब्राह्मण के स्थान पर ब्राह्मणी ) को नही कराना चाहिये!!

यदि श्राध्द भोजन करने वाले एक हजार ब्राह्मणों के सम्मुख एक भी योगी तो वह यजमान के सहित उन सबका उद्धार कर देता है!!

जिस श्राध्द में दस लाख बिना पढ़े हुए ब्राह्मण भोजन करते है, वहां यदि वेदों का ज्ञाता एक ही ब्राह्मण भोजन करके सन्तुष्ट हो जाये तो उन दस लाख ब्राह्मणों के बराबर का फल देता है!!

कम से कम देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन अथवा दोनो में एक-एक ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये। अत्यंत धनवान होने पर भी श्राद्ध कर्म में विस्तार या दिखावा नही करना चाहिए!!

जो श्राद्धकाल आने पर भी काम, क्रोध अथवा भय से पांच कोस के भीतर रहने वाले दामाद, भांजे तथा बहिन को नही बुलाता ओर सदा दुसरो को ही भोजन कराता है, उसके श्राद्ध में देवता तथा पितर अन्न ग्रहण नही करते!!अपना भांजा ओर भाई-वन्धु यदि मूर्ख भी हो तो भी श्राध्द में उनका त्याग नही करना चाहिए!!

श्राद्ध में निमंत्रित बैठ जाने पर भजन के निमित्त उपस्थित हुए भिक्षुक या ब्रह्मचारी को भी उनके इच्छानुसार भोजन कराना चाहिये। जिसके श्राध्द में अतिथि भोजन नही करता उसका श्राध्द प्रशंसनीय नही होता!!

श्राध्दकाल में आये अतिथि का अवश्य सत्कार करे। उस समय अतिथि का सत्कार न करने से वह श्राध्दकर्म के सम्पूर्ण फल को नष्ट कर देता है!!

जिसके श्राध्द के भोजन में मित्रो की प्रधानता होती है, उस श्राध्द या हविष्य से पितर व देवता तृप्त नही होते! जो श्राद्ध में भोजन देकर उससे मित्रता का सम्बंध जोड़ता है अर्थात श्राध्द को मित्रता का साधन बनाता है। वह स्वर्गलोक से भ्रष्ट हो जाता है; इसलिए श्राध्द में मित्र को निमंत्रण नही देना चाहिए। मित्र को सन्तुष्ट करने के लिए धन आदि देना उचित है। श्राद्ध में भोजन तो उसे ही कराना चाहिये, जो शत्रु या मित्र न होकर मध्यस्थ हो!!

श्राद्ध में हीन अंगवाला, पतित, कुष्ठरोगी, व्रणयुक्त, पुक्कस जाति वाला, नास्तिक और मुर्गा सुवर तथा कुत्ता- ये दूर से ही हटा देना चाहिए। वीभत्स, अपवित्र, नग्न, मत्त, मूर्ख , धूर्त,  रजस्वला स्त्री, नीला तथा कशाय वस्त्र धारण करने वाले तथा पाखंडी को भी वहां से हटा देना चाहिये!!

पिंडदान के समय उस स्थान से चांडाल, श्वपच, गेरुआ वस्त्रधारी, सन्यासी, कोढ़ी, पतित, ब्रह्म हत्यारा, क्षेत्रज ब्राह्मण को हटा देना चाहिए!!

जहाँ रजस्वला स्त्री, चांडाल, ओर सुवर श्राद्ध के अन्नपर दृष्टि डाल देते है, वह श्राध्द व्यर्थ हो जाता है।वह अन्न प्रेत ही ग्रहण करते है!!नपुंसक, अपविद्ध (सत्पुरुषों द्वारा वहिष्कृत) चांडाल, पापी, पाखंडी, रोगी, मुर्गा, कुत्ता, नग्न, (वैदिक कर्म का त्याग करने वाला) वन्दर, सुवर, रजस्वला स्त्री, जन्म-मरण के शौच से युक्त व्यक्ति और शव ले जाने वाले पुरुष – इनमे से किसी की भी दृष्टि पड जाने से देवता या पितर – कोई भी अपना भाग ग्रहण नही करते; इसलिये किसी घिरे हुए स्थान में श्रध्दापूर्वक श्राध्दकर्म करना चाहिए!!

चांडाल, सुवर, कुत्ता, मुर्गा, रजस्वला स्त्री, और नपुंसक- ये भोजन करते हुए ब्राह्मणो को नही देखे। होमः, दान, भोज्य, दैव और पितृ – इनको यदि ये देख ले तो वह सब निष्फल हो जाता है ।

एक खुरवाले का, ऊंटनी का, भेड़ का, मृगी तथा भैस का दूध श्राद्ध में काम मे नही लेना चाहिए। चँवरी गाय का तथा हाल की व्यायी हुई गौ के दस दिन के भीतर का दूध भी श्राद्ध में वर्जित है। श्राध्द के निमित्त मांगकर लाया हुया दूध भी वर्जित है!!ब्रह्मा जी ने पशुओ की सृष्टि करते समय सबसे पहले गौ को रचा अतः श्राद्ध में उन्ही का दूध, दही, घी काम मे लेना चाहिये!!

जौ, धान, तिल, गेंहू, मूंग, सांवा, सरसो का तेल, तिन्नी का चावल, कंगनी आदि से पितरो को तृप्त करना चाहिये। आम, अमड़ा, वेल, अनार, विजोरा, पुराना आंवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, निलकैथ, परवल, चिरौजी, वेर, जंगली वेर और इंद्र जौ- इनको यत्नपूर्वक लेना चाहिये!!

जौ, कंगनी, मूंग, गेहूं, धान, तिल, मटर, कचनार और सरसों- इनका श्राद्ध में होना अच्छा है!!जिसमे बाल या कीड़े पड़ गए हों, जिसे कुत्ते ने देख लिया हों, जो वासी या दुर्गंधित हो। ऐसी वस्तु का श्राद्ध में उपयोग न करे। वैगन ओर शराब का भी त्याग करें। जिस अन्न पर पहने हुए वस्त्र की हवा लग जाये वह भी श्राद्ध में वर्जित है!!

राजमाष, मसूर, अरहर, गाजर, कुम्हड़ा, गोल लौकी, बैगन, शलजम, हींग, प्याज, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, सुपारी, कुल्थी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसो, चना—ये सब वस्तुओ श्राध्द में निषेध है!!जहाँ घरघराहट की ध्वनि, ओखली के कूटने का शव्द अथवा सूप के फटकने की आवाज होती हो, वहां पर किया श्राद्ध व्यर्थ हो जाता है !!

अरुण श्राध्द कर्ता पुरुष दातुन करना, पान खाना, तैल ओर उबटन लगाना, मैथुन करना, ओषध सेवन करना तथा दूसरे के अन्न का सेवन करना अवश्य त्याग दे। रास्ता चलना, दूसरे नगर या गांव जाना, कलह, क्रोध और मैथुन करना, बोझ ढोना तथा दिन में सोना, इन सबका उस दिन परित्याग कर देना चाहिए!!

श्राद्ध भूमि में सर्वत्र तिल विखेर देना चाहिए। तिलों के द्वारा असुरों से आक्रांत भूमि शुध्द हो जाती है।।

जो श्राध्द तिलों से रहित होता है,अथवा जो क्रोध पूर्वक किया जाता है, उसके हविष्य को राक्षस अथवा पिशाच लुप्त कर देते है!!

जिस श्राध्द में तिल की मात्रा अधिक होती है वह श्राद्ध अक्षय होता है!!

जो सफेद तिलों से पितरो का तर्पण करता है उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ हो जाता है!!

तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते है, कुश राक्षषो से बचाते है, श्रोत्रिय ब्राह्मण पंक्ति की रक्षा करते है ओर यतिगण (यदि कषाय वस्त्र वाले न हो तो) श्राद्ध में भोजन कर ले तो वह अक्षय हो जाता है।श्राद्ध में पहले अग्नि को ही भाग्य अर्पित किया जाता है। अग्नि में हवन करने के बाद जो पितरो के निमित्त पिंडदान किया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नही करते!!

सोने, चांदी और ताँबे के पात्र पितरो के पात्र कहे जाते है, श्राद्ध में चांदी की चर्चा और दर्शन भी पुण्यदायक है। चांदी का समीप होना, दर्शन अथवा दान राक्षसो का विनाश करने वाला, यशोदायक तथा पितरो को तैरनेवाला होता है। पितरो के लिए चांदी के पात्र से श्रद्धा पूर्वक जलमात्र भी दिया जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है । पितरो के लिए अर्घ्य, पिंड और भजन पात्र भी चांदी के ही श्रेष्ठ माने गये है।।

जो अपनी तर्जनी अंगुली में चांदी की मुद्रिका धारण कर पितरो को तर्पण करता है, उसका तर्पण फल अधिकाधिक प्राप्त होता है। यदि वह अनामिका अंगुली में स्वर्ण की मुद्रिका धारण कर तर्पण करे तो वह बहुत अधिक फल देने वाला होता है।।जो मनुष्य मैथुन तथा क्षोरकर्म करके देवताओ ओर पितरो को तर्पण करता है; वह जल रक्त्त के समान होता है तथा दाता नरको को जाता है (अतः क्षोरकर्म एक दिन पूर्व होना चाहिए)!!

जो ब्राह्मणो के हाथ मे नमक या व्यंजन परोसता है अथवा लोहे के पात्र से परोसता है; वह भोजन को राक्षस ग्रहण करते है, पितर ग्रहण नही करते!!एक हाथ से लाया गया जो अन्न पात्र ब्राह्मणो के आगे रखा जाता है; उस अन्न को राक्षस छीन लेते है!!

गोमय आदि से लिपे-पुते पवित्र तथा एकांत स्थान में जिसमे दक्षिण दिशा की ओर भूमि कुछ नीची हो और जहाँ पापी मनुष्यो की दृष्टि न पड़े, श्राद्ध करना चाहिए!!जो मनुष्य श्राद्ध के समय ब्राह्मणो को मिट्टी के पात्र में भोजन कराता है; वह मनुष्य एवम ब्राह्मण – दोनो पाप के भागी होते है!!

सिर ढककर (पगड़ी आदि बांधकर) दक्षिण की तरफ मुख करके ओर जूता पहन कर भोजन करने से वह अन्न राक्षसों को प्राप्त होता है, पितरो को नही!जो अज्ञानी मनुष्य अपने घर श्राद्ध करके फिर दूसरे घर भोजन करता है; वह पाप का भागी होता है ओर कर्ता को श्राद्ध का फल नही मिलता!!ब्राह्मणो को श्रद्धा पूर्वक गरम अन्न भोजन कराना चाहिये; परन्तु फल पेय पदार्थ ठंडा ही देना चाहिये!!

जब तक अन्न गरम रहता है, जब तक ब्राह्मण मौन होकर भोजन करते है और जब तक वे भोज्य पदार्थों के गुणों का वर्णन नही करते तब तक पितर लोग भोजन करते है!!श्राद्ध में वैद्य को दिया हुया अन्न पीव व रक्त्त के समान पितरो को अग्राह्य हो जाता है। देव मंदिर में पूजा करके जीविका चलाने वाले को दिया हुआ श्राद्ध का अन्न दान निरर्थक हो जाता है। सूदखोर को दिया हुआ अन्न अस्थिर हो जाता है।वाणिज्यबृत्ति करनेवाले को श्राद्ध में दिया हुआ अन्न का दान न इस लोक में लाभदायक होता है न परलोक में!

वस्त्र के विना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन ओर तपस्या नही होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्रका दान विशेष रुप से करना चाहिए। जो रेशमी, सूती और विना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भीगो को प्राप्त करता है।श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का नया सूत देना चाहिये। ऊन या पाटका सूत वर्जित है। विद्वान पुरुष जिसमे कोर न हो ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दे, क्योंकि उसमे दोष होता है और पितर तृप्त नही होते।।स्त्री श्राद्ध के उच्छिष्ट पात्रो का न उठाएं। ज्ञानहीन ओर वृतरहित पुरुष भी उन्हें न हटाये। स्वयं पुत्र ही आकर पिता के श्राद्ध में उच्छिष्ट पात्रो को उठाये!!

श्राद्ध के पिंडो को गौ या बकरी को खिला दे अथवा पानी मे या अग्नि में छोड़ दे!! (ब्राह्मणों को भी खिला सकते है)!!यदि श्राद्ध कर्ता की पत्नी को पुत्र की कामना हो तो मध्यम पिंड (पितामह को अर्पित पिंड) को ग्रहण कर ले और पितरो से पुत्र- प्राप्ति की प्रार्थना करे- आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्कर स्रजम्!!

【पितरो !आप लोग मेरे गर्भ में कमलों की माला से अलंकृत एक सुंदर पुत्र की स्थापना करें】

भोगों की इच्छा रखने वाला पुरुष पिंड को सदा अग्नि में डाले!!सन्तान की प्राप्ति के लिए मध्यम पिंड मंत्रोच्चारण पूर्वक पत्नी को दे!!

उत्तम कांति चाहे तो सदा गौ को ही पिंड खिलाये!!यदि प्रज्ञा, यश, चहुं ओर कीर्ति की इच्छा हो तो सदा पिंड को जल में ही डाले!!

दीर्घ आयु की कामना हो तो सब पिंडो को कौओं को खिला दे!!कार्तिकेय के लोक में जानें कि इच्छा हो तो मुर्गे को खिलाएं अथवा दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आकाश में ही उछाल दे, क्योकि आकाश और दक्षिण दिशा पितरो के ही स्थान है!

जो व्यक्ति अग्नि, विष आदि के द्वारा आत्महत्या करता है, उसके निमित्त अशौच तथा श्राद्ध-तर्पण करने का विधान नही है। यदि श्राद्ध तर्पण किया भी जाये तो उसे प्राप्त नही होता!!अमावश्या को पितृ श्राद्ध के अवसर पर यदि मंथन-क्रिया (दही विलोय) किया जाए तो उससे प्राप्त मट्ठा मदिरा के समान तथा घी मांस के समान माना गया है!!

श्राद्ध ओर हवन के समय तो एक ही हाथ से पिंड एवं आहुति दे,पर तर्पण में दोनो हाथों से जल देना चाहिए!!नाभि के वरावर जल में खड़ा होकर मन- ही -मन यह चिंतन करे कि मेरे पितर आये और यह जलांजलि ग्रहण करे। दोनो हाथों को संयुक्त करके जल से पूर्ण करें और अपने ह्रदय के ऊपर तक अंजली उठाकर उसे पुनः विधिपूर्वक जल में डाल दे।

जल में दक्षिण की ओर मुख करके खड़ा होकर आकाश में जल गिराना चाहिये; क्योंकि पितरो का स्थान दक्षिण दिशा और आकाश ही मान्य है!पूर्णिमा ओर चतुर्दशी को श्राद्ध नही करना चाहिए; क्योंकि पूर्णिमा कृष्णपक्ष में न होने से उसमे महालय की प्राप्ति नही होती और चतुर्दशी में केवल शस्त्र से नष्ट हुए का छोड़कर श्राद्ध करनेवाले के घर मे नवयुवकों की मृत्यु तथा श्राद्ध कर्ता स्वयं युद्ध का भागी होता है।

इन दोनों तिथियों का श्राद्ध द्वादशी या अमावश्या को करना चाहिए।।विशिष्ठ जानकारी के लिए अपने आचार्य एवं पुरोहित से सम्पर्क करें!!

(यह लेख सनातन धर्मावलम्बियों के लिए है जो हमारी परम्परा को मानते है अन्य दुष्ट व्यक्तियों के लिए नही!!)

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