महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र…भले ही संहार से जुड़ा हो, लेकिन मन में एक आनंद, सकारात्मकता और शांति को जन्म देता है। आखिर इसका कारण क्या हो सकता है?
उसका
प्रस्तुतिकरण….। लेकिन उसमें भी तो संहार की नकारात्मकता नहीं…।शायद इसलिए कि संहार अगर कल्याण से जुड़ा है तो वह शांतिदायक है, आनंद की रक्षा के लिए है और जगत में सकारात्मकता की रक्षा के लिए है…।
मां से संतान का रिश्ता किसी भी रूप में सहज ही अपार अपनत्व और प्रेम समेटे होता है। शायद यही कारण है कि मां दुर्गा के हर रूप से भलीभांति परिचित होते हुए भी हम उन्हें ममतामयी मां के रूप में ही देखते हैं, फिर चाहे वह लक्ष्मी, सरस्वती के सौम्य रूप में हो या फिर काली के रूप में। यहां हम मां दुर्गा को महिषासुर मर्दिनी के रूप में भी बड़ी श्रद्धा से पूजते और उस शक्ति के आगे नतमस्तक होते हैं, जो संसार भर को असुरी शक्तियों से मुक्त कर संरक्षण प्रदान करती है। जिसके आगे देवता भी नतमस्तक हुए हैं। लेकिन एक पल के लिए देवलोक से बाहर निकलकर हम अपने धरातल पर आकर एक ऐसी स्त्री की कल्पना करें, जो किसी दुष्ट पुरुष से युद्ध करती है! इस पक्ष को उभारा जाए कि वे एक नारी हैं जिन्होंने एक दुष्ट पुरुष राक्षस का वध किया! तत्व वही है, जो हमारे आसपास रिश्तों के रूप में कभी मां, कभी बहन, कभी बेटी कभी पत्नी और कभी अपरिचित ही सही…परंतु अस्तित्व रखता है।परंतु हमने कभी उसे इस तत्व के रूप में देखा ही नहीं। उस अंश के रूप में नहीं देखा जो महिषासुर का वध तो करती है, लेकिन धर्म, सकारात्मकता और सत्य की रक्षा हेतु। विश्व जो उसका परिवार है उसमें शांति हेतु… और इसके लिए देवताओं ने उनकी स्तुति की है, देवता स्वयं उनकी शरण में आए हैं, ताकि दुष्टों का संहार किया जा सके….।यहां एक स्त्री का बड़ा ही सशक्त, सुघड़ और सुंदर स्वरूप नजर आता है, जो देव भार्या होते हुए तो विनम्र, मधुर, कृपालु, मर्यादित और सौम्य हैं परंतु जब बात अधर्म की हो तो वह क्रोधित भी है। थोड़ी बहुत क्रोधित भी नहीं, इतनी क्रोधित कि परिस्थियों पर दुख मनाने के बजाए संहार करना अंतिम सत्य हो जाता है उसके लिए। वह अपनों पर सदैव कृपालु है परंतु दुष्टों के लिए संहारकर्ता भी।
इसे वर्तमान हालातों से जोड़कर देखें तो भिन्न-भिन्न परिस्थियां देखने को मिलती है। हम देखते हैं अपने आसपास कई स्त्रियों को, विभिन्न स्वरूपों में। अगर वह साहसी है, तो उसका साहस शक्ति प्रदर्शन के सिवा कुछ नहीं, और अगर वह धातृी है तो उसमें दया, कृपा, मर्यादा के गुणों के बीच शक्ति प्रदर्शन का अस्तित्व ही नहीं। जबकि वास्तव में स्त्री इन दोनों का सम्मिश्रण है जो उसे और भी सुंदर कृति बनाता है।
वास्तव में नारी का स्वरूप तभी उभरकर निखरेगा, जब वह अपने सभी गुणों को स्वभाव और परिस्थियों के साथ लयबद्ध कर लेगी। वह अपनी शक्तियों को पहचानेगी, लेकिन उन्हें अन्यथा व्यय करने की बजाए आवश्यक प्रिय या अप्रिय परिस्थतियों के लिए सहेज कर रखेगी। शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता धर्म की हानि को बचाने व परोपकार के लिए हो, न कि सिर्फ स्वयं के अधिकारों के लिए।
स्त्री को चाहिए कि वह छोटी-छोटी अप्रिय स्थितियों में बरस न पड़े, बल्कि मधुरता लिए हो और जब पानी असल में सर से ऊपर हो जाए तभी अपनी संरक्षित ऊर्जा को शक्ति के रूप में इस्तेमाल करे…। इस प्रकार वह अपनों के बीच प्रेम और सम्मान पाए और अपनी शक्ति की गरिमा को भी बनाए रखे। क्रोध का सम्मान भी तब है, जब वह स्वहित नहीं बल्कि स्वजनों, समाज, संसार और धर्म के हित में हो।