अलौकिक अद्भुत एवं सनातन परंपरा का प्रतीक है विष्णुपद मंदिर,
जिला युवा पदाधिकारी कैमूर/रोहतास सुशील करौलिया
ब्यूरो चीफ, सत्यम कुमार उपाध्याय
कैमूर। बिहार की सांस्कृतिक नगरी गया जिला के फल्गु नदी के पश्चिमी तट पर स्थित विष्णुपद मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। गया तीर्थ सनातन धर्म के लिए काफी महत्वपूर्ण है और अद्भुत तीर्थ है हालांकि गया तीर्थराज प्रयाग,ऋषिकेश और वाराणसी की तरह 7 पुरियो में शामिल तो नहीं है लेकिन इस स्थान को स्वर्ग का द्वार माना जाता है। गरुड़ पुराण के हिसाब से गया जी को पितरों की मुक्ति के लिए सबसे पवित्र माना गया है। पितृपक्ष के अवसर पर गया में पितरों को तर्पण आदि देने के लिए देश के साथ-साथ विदेश से भी लोग आते हैं। ऐसी मान्यता है कि सर्व पितृ अमावस्या के दौरान पितरों को गया जी में तर्पण करने से उन्हें तृप्ति मिलती है और वह बैकुंठ पहुंचते हैं। विष्णुपद मंदिर में हर एक दिन एक पिंड और एक मुंड की परंपरा है इस परंपरा के पालन के चलते ही गृहण काल में भी मंदिर को बंद नहीं किया जाता है तथा छूतक काल के दौरान भी पिंडदान क्रिया जारी रहती है।
यह मंदिर गया जंक्शन से 4 किलोमीटर तथा गया एयरपोर्ट से लगभग 10 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। गया में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा स्थित है चुँकि गया एक बौद्ध क्षेत्र भी है इसलिए यहां श्रीलंका, थाइलैंड, सिंगापुर,भूटान जैसे तमाम देशों से भी फ्लाइट आती रहती हैं। यहां आपको श्रीहरि के पदचिन्ह देखने को मिलेंगे। कहा जाता है की इस मंदिर में सतयुग से ही पूजा-पाठ की जा रही है मंदिर का अस्तित्व समुद्रगुप्त के काल से ही है जिनका 5वीं शताब्दी में विशाल साम्राज्य था| पूर्व में मिले शिलालेखों में राजा को भगवान विष्णु के भक्त के रूप में वर्णन किया गया है। यहां पर मौजूद भगवान विष्णु के पदचिह्न के पीछे एक पौराणिक कथा है जिसके अनुसार गयासुर नामक एक असुर ने तपस्या कर भगवान से आशीर्वाद प्राप्त कर लिया कि जो उसे देखेगा उसे पुण्य प्राप्त हो जाएगा लेकिन इसका दुरुपयोग करते हुए उसने देवताओं को ही तंग करना शुरू कर दिया इससे त्रस्त होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने गयासुर से आग्रह किया कि वह उसकी छाती पर यज्ञ करेंगे गयासुर मान गया,छाती पर यज्ञ करने के दौरान जब गयासुर करवट लेना चाहा तब भगवान विष्णु ने उसकी छाती पर पैर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया। मंदिर में पदचिन्ह ऋषि मरीचि की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है इसी पर प्रभु ने पैर रखकर गयासुर को स्थिर करने के लिए दबाया था तब से ही आज तक वहां पदचिन्ह मौजूद है। ऐसा कहा जाता है कि जिस दिन गयासुर को भोजन नहीं मिलेगा वह दिन गयासुर का दुनिया में वापसी का दिन होगा इसलिए भोजन के रूप में प्रत्येक दिन एक पिंड व एक मुंड देने का प्रावधान है। गया जिले का नाम गयासुर के कारण ही पड़ा है। सोने को कसने वाले कसौटी पत्थर से बना विष्णुपद मंदिर अष्टकोणिय आकार का है जिसका मुख पूर्व दिशा की ओर है। मंदिर परिसर में प्रभु के पदचिह्न की लंबाई 40 सेमी (18 इंच) है जिसको धर्मशिला कहा जाता है। धर्मशिला चांदी की प्लेटों से बने बेसिन से घिरा हुआ है। पदचिह्न का श्रृंगार रक्त चंदन से किया जाता है जिसमें गदा,चक्र,शंख समेत 9 प्रतीक बनाए जाते हैं। पत्थर कट्टी के पत्थरों से तराशा हुआ यह मंदिर लगभग 100 फीट ऊंचा हैं जिसमें 58 फीट चौड़ा राज मंडप 8 पिलर पर मौजूद है। सभा मंडप में 44 पिलर है। 54 वेदियो में से 19 वेदी विष्णुपद में ही है 19 में से 16 वेदिया अलग-अलग है और तीन वेदिया रुद्रप्रद, ब्रह्मप्रद और विष्णुप्रद है जहां खीर से पिंडदान का विधान है। मंदिर की चोटी पर 50 किलो के सोने का झंडा व सोने का कलश लगा है जो भक्त गयापाल पंडा बाल गोविंद सिंह ने दान दिया था। मंदिर के गर्भ गृह में 50 किलो चांदी का छत्र और 50 किलो चांदी का अष्ट पहल है जिसके अंदर श्रीहरि के पद चिन्ह बने हुए हैं। मंदिर में भगवान नरसिंह और शिवजी का भी मंदिर है जो शिव के फल्गीश्वर अवतार को समर्पित है। ब्रह्म कलपरित ब्राह्मण जिनको गयावल ब्राह्मण भी कहा जाता है। गयापाल तीर्थ पुरोहित या गया पंडा मंदिर के पारंपरिक पुजारी कहे जाते हैं। प्राचीन मान्यताओं में ऐसा कहा जाता है कि प्रभु श्री राम माता सीता के साथ यहां आए थे रामायण में भी इसका वर्णन मिलता हैवैसे तो हिंदू धर्म में पिंडदान पुत्र के ही द्वारा किया जाता है लेकिन यहां पिंडदान माता सीता द्वारा किया गया। वाल्मीकि रामायण में इस संदर्भ में बताया गया है कि वनवास के दौरान प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु नगर की ओर चले गए। समय पर वापस ना लौट पाने तथा कुतप समय के निकलते जाने के कारण सीता जी ने फल्गु नदी के साथ,वट वृक्ष ,केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। गवाही देने से मुकर जाने के कारण गाय ,केतकी के फूल और तुलसी के साथ फल्गु नदी आज भी श्रापित है तथा अक्षय वट को वरदान प्राप्त है। प्रबंध कार्यकारिणी समिति के सचिव गजाधर लाल पाठक बताते हैं की “पौराणिक काल में यह स्थल अरण्य जंगल के नाम से प्रसिद्ध था। माता सीता ने महाराज दशरथ को बालू से बना पिंड फल्गु नदी में अर्पित किया था जिसके बाद से यहां बालू से बने पिंड देने का महत्व है और इस जगह को सीता कुंड के नाम से जाना जाने लगा। प्रत्येक दिन संध्या आरती के बाद विष्णु चरण को फूल,तुलसी से सजाया जाता है। साथ ही पूर्णिमा के दिन पूरा मंदिर प्रांगण को सजाने का प्रावधान है। इस दिन फल्गु नदी के देवघाट पर फल्गु आरती भी की जाती है। विष्णुपद मंदिर का पुनर्निर्माण 18वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1787 मे कराया था।साहित्यकार डॉक्टर महेश कुमार चरण के अनुसार मंदिर का जीर्णोद्धार 1766 से 1787 ईस्वी में हुआ है यानी पूरा मंदिर 20 वर्षों में बनकर तैयार हुआ। ऐसा कहा जाता है की महारानी ने अपने अधिकारियों को मंदिर में लगाने के लिए उत्तम पत्थरों को चुनने के लिए भेजा था अधिकारियों ने मुंगेर जिले में जयनगर की पहाड़ी के पत्थर को चुना लेकिन अधिक दूरी और दुर्गम मार्ग के चलते अंतिम में गया के एक छोटे गांव बथानी को चुना गया जहां कारीगर राजस्थान से मंगाए गए। मंदिर की नक्काशी अतरी प्रखंड के पत्थरकट्टी (गया का एक छोटा गांव) पर शुरू की गई।कहा जाता है कार्य पूरा होने के बाद कुछ कारीगर वापस चले गए तो कुछ आजीवन पत्थरकट्टी में ही रह गए। विष्णुपद मंदिर में आपको एक अलौकिक शक्ति का एहसास होता है साथ ही एक प्रमुख बात यह है कि बिना किसी जल भराव अथवा पानी के स्रोत के भी इस मंदिर की छत से बूंद पानी गिरता है। विष्णुपद प्रबंधकारिणी सदस्य के शंभू लाल विट्ठल जी बताते हैं की विष्णु पद में अद्भुत आकाशगंगा है इसे भगवान का आशीर्वाद कहते हैं। गंगा की उत्पत्ति भगवान विष्णु के दाहिने अंगूठे से हुई थी। विष्णुपद गर्भ गृह से सटे छत के ऊपर गुंबद के समीप से जल टपकता है। यह धर्म की आकाशगंगा है जो प्रभु का ध्यान लगाकर खड़े होते ही ऊपर से पानी की बूंद टपक कर आशीर्वाद के रूप में मिल जाती है यह भगवान विष्णु का आशीर्वाद है। मंदिर परिसर में एक अविनाशी बरगद का वृक्ष भी है जिसे अक्षयवट कहा जाता है। गयापाल शंभू लाल विट्ठल बताते हैं कि पुरातत्व निदेशालय की सुरक्षित स्मारकों में यह मंदिर शामिल है। एक और विशेष बात यह है कि यहां 164 साल से एक घड़ी बिना बैटरी व बिना कांटे के समय बता रही है।इस घड़ी (सूर्य घड़ी) को 164 वर्ष पहले पूर्व के पुजारी छोटेलाल भैया के द्वारा स्थापित किया गया था। विष्णु पद मंदिर प्रबंधकारिणी समिति के अध्यक्ष शंभू लाल विट्ठल कहते हैं “यह सूर्य घड़ी काफी पुरानी है लेकिन अभी भी सटीक समय बताती है चुँकि यह सूर्य की रोशनी पर निर्भर है इसलिए सूर्यास्त के बाद काम करना बंद कर देती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 629 से 643 ईस्वी में गया को प्रसिद्ध हिंदू शहर के रूप में बताया है जिसमें उन्होंने गया को छोटी जनसंख्या तथा ब्राह्मणों का 1000 परिवार वाला बताया था। वही फ्रांसिस बुकानन ने भी गया को अपनी पुस्तक में 45 पवित्र तीर्थ स्थलों की सूची में बताया था। पितृपक्ष के महीने में मेला मंदिर परिषद में लगता है जिसका भव्य आयोजन किया जाता है मेले में मंदिर समिति,जिला प्रशासन,गया के साथ नेहरू युवा केंद्र,गया के स्वयंसेवक भी अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। विष्णुपद में माधवाचार्य,चैतन्य महाप्रभु,निर्मला सीतारमण,वल्लभाचार्य,संजय दत्त समेत बहुत से चर्चित लोग भी दर्शन करने आते रहते हैं। श्रद्धालु विष्णु चरण पर तुलसी के पत्ते चढ़ा के विष्णु सहस्त्रनाम पाठ भी करते हैं। मंदिर में अहिंदू प्रवेश निषेध है,मंदिर के गेट पर भी दोनों ओर यह लिखा हुआ है।उर्दू में भी इस बात को लिखा गया है। विष्णुपद मंदिर में दर्शन करने के साथ ही आप आसपास मौजूद कई और दर्शनीय स्थल भी घूम सकते हैं जैसे रामशिला पहाड़ी जो गया के दक्षिण पूर्व की ओर स्थित है ऐसा माना जाता है कि प्रभु श्री राम ने अपने पूर्वजों का पिंड यही चढ़ाया था। पहाड़ी की चोटी पर एक मंदिर स्थित है जिसे रामेश्वर या पातालेश्वर मंदिर कहा जाता है इसको 1014 ईस्वी में बनाया गया था। मंदिर के अंदर राम सीता तथा लक्ष्मण जी की प्रतिमा स्थापित है यहां बने एक शिव मंदिर में स्फटिक से बना हुआ 1 फीट ऊंचा शिवलिंग और मूंगे की पत्थर से बनी गणेश जी की प्रतिमा है दूसरा दर्शनीय स्थल इसी पहाड़ी से 10 किलोमीटर दूर प्रेतशिला पहाड़ी है यहां स्थित ब्रह्म कुंड में स्नान करने के बाद श्रद्धालु पिंडदान करते हैं। यहां मृत्यु के देवता यम का मंदिर है। मंदिर के पास ही राम कुंड है बताया जाता है भगवान राम ने यहां स्नान किया था।पहाड़ी की चोटी पर महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1787 में एक मंदिर बनवाया था जिसे लोकप्रिय रूप में अहिल्याबाई मंदिर के नाम से जाना जाता है। तीसरा है मंगल गौरी मंदिर यह मंदिर देवी सती यानी शक्ति को समर्पित है यह मंदिर देश के 18 महाशक्ति पीठों में से एक है।वर्षा ऋतु में हर मंगलवार को यहां एक विशेष पूजन होता है इसके साथ ही ब्रह्मयोगी मंदिर,रामगया पहाड़ी,ढूंगेश्वरी मंदिर, भगवान बुद्ध का महाबोधि तीर्थ स्थल समेत कई पवित्र तीर्थ स्थल मौजूद है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है जहां आप घूमने के साथ-साथ श्रीहरि के चरणों के दर्शन भी कर सकते हैं। एक बार समय निकालकर सपरिवार जरूर आए।
ब्यूरो चीफ, सत्यम कुमार उपाध्याय
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