अंकुर कुमार पाण्डेय
रिपोर्ट सत्यार्थ न्युज
वाराणसी
वाराणसी, काशी की अनोखी परम्परा घाट पर जलती चिताओं के बीच नगर वधुओं ने धरा योगिनी रूप, घुंघरुओं की खनक से महाश्मशान नाथ को प्रसन्न करने की निभाई रस्म
वाराणसी। चैत्र नवरात्रि के पंचमी से सप्तमी तक चलने वाले श्री श्री 1008 बाबा महाशमशान नाथ के त्रिदिवसीय श्रृंगार महोत्सव का सोमवार को समापन किया गया। बाबा का सायंकाल पंचमकार का भोग लगाकर तांत्रोक्त विधान से भव्य आरती किया गया।
कार्यक्रम के अंतिम दिन नगर वधुओं ने योगिनी रूप में नृत्य प्रस्तुत किया। मान्यता है कि बाबा को प्रसन्न करने के लिये शक्ति ने योगिनी रूप धरा था। इस दौरान बाबा का प्रांगण रजनी गंधा,गुलाब व अन्य सुगंधित फूलों से सजाया गया था। आरती के पश्चात नगर वधुओं ने अपने गायन व नृत्य के माध्यम से परम्परागत भावांजली बाबा को समर्पित करते हुए मन्नत मांगी कि बाबा अगला जन्म सुधारे, उन्हें अगले जन्म में नगर वधु न बनना पड़े। यह दृश्य अत्यंत भावपूर्ण रहा, जिसे देखकर सभी लोगों की आखे डबडबा गईं। इस श्रृंगार महोत्सव के प्रारंभ के बारे में विस्तार से बताते हुए गुलशन कपूर ने कहा कि यह परम्परा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। जिसमें यह कहा जाता हैं कि राजा मानसिंह ने जब बाबा के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था, तब महाशम्शान के कारण मंदिर में संगीत के लिए कोई भी कलाकार आने को तैयार नहीं हुआ था। हिन्दू धर्म में हर पूजन या शुभ कार्य में संगीत जरुर होता है। ऐसे में मानसिंह काफी दुःखी हुए और यह संदेश उस जमाने में धीरे-धीरे पूरे नगर में फैल गया।
नगर वधुओं तक सन्देश पहुंचते ही उन्होंने डरते डरते अपना यह संदेश मानसिंह तक भिजवाया कि यह मौका अगर उन्हें मिलता है, तो काशी की सभी नगर वधूएं अपने आराध्य संगीत के जनक नटराज महाश्मसानेश्वर को अपनी भावाजंली प्रस्तुत कर सकती हैं। संदेश पा कर राजा मानसिंह काफी प्रसन्न हुए और शमशान में नगर वधुओं को आमंत्रित किया गया। तब से यह परम्परा चल निकली, वहीँ दूसरी ओर नगर वधुओं के मन मे यह आया कि यदि वे इस परम्परा को निरन्तर बढ़ाती हैं, तो उनके इस नरकिय जीवन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। फिर क्या था आज सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद भी यह परम्परा जीवित है और बिना बुलाये यह नगर वधूए कहीं भी रहें, चैत्र नवरात्रि के सप्तमी को यह काशी के मणिकर्णिका घाट स्वयं आ जाती है बाबा का रात्रि पर्यन्त चलने वाला जागरण जलती चिताऒ के पास मंदिर में अपने परम्परागत स्थान से प्रारंभ हुआ।