सवांददाता मीडिया प्रभारी मनोज मूंधड़ा बीकानेर श्रीडूंगरगढ़
जैन योग तपस्या और त्याग की सुविधा देता है : कालवा
श्रीडूंगरगढ़ कस्बे की ओम योग सेवा संस्था के निदेशक योगाचार्य ओम प्रकाश कालवा ने सत्यार्थ न्यूज चैनल पर 72 वां अंक प्रकाशित करते हुए जैन धर्म का योग में योगदान के बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए बताया। आचार्य शिव मुनि (जैन आचार्य) जी जैन श्रमण संघ के प्रसिद्ध ध्यान योगी है। जैन धर्म कि तपस्या मे योग का विशेष महत्व है, क्योकि जैन धर्म में योग के मुख्य पहलु अंग आसन्न व प्राणायाम को अपनाया है। जैन धर्म के प्रमुख पंच महाव्रत हिन्दु धर्म में वर्णित अष्टांग योग के अंग के हि समान है। जैनागम चार भागों में विभक्त है जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है। ये पांच महाव्रत – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह हैं। 9.निर्वाण मार्ग – जैन धर्म के अनुसार निर्वाण जीवन का अंतिम लक्ष्य है। सदाचारी जीवन तथा कठोर नियमों का पालन से निर्वाण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। जैन धर्म भारत श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन धर्म और दर्शन है। जैन अर्थात् कर्मो का नाश करनेवाले ‘जिन भगवान’ के अनुयायी। सिन्धु घाटी से मिले जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है। सम्मेत्त शिखर, राजगिर, पावापुरी, गिरनार, शत्रुंजय पावागढ़ आदि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। जैन योग तपस्या (तप) और त्याग (त्याग) की सुविधा देता है।जो योग के अलावा दृढ़ता के दो प्रमुख तत्व हैं। तीनों अभ्यास एक साथ मिलकर मन-शरीर-वाणी की उन सभी गतिविधियों को नियंत्रण में लाते हैं जो हमेशा से व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति में बाधा डालती रही हैं। जैन दर्शन में योग शब्द कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में है।जब साधना जगत् में चित्त वृत्तियों के परिष्कार,अन्तर्जीवन के सम्मार्जन,संशोधन मन के नियमन आदि अर्थों में योग शब्द का प्रयोग बहुव्याप्त हो गया, तब जैन आचार्यों ने भी जैनदर्शन सम्मत अध्यात्मसाधना क्रम को जैन योग के रूप में एक नया मोड़ दिया
निवेदन
ओम योग सेवा संस्था श्री डूंगरगढ़ द्वारा जनहित में जारी।