गणपति का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद (२।२३। १) में निम्न स्तवनके साथ प्राप्त होता है-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम् ॥
शुक्लयजुर्वेद के अश्वमेधयज्ञ-प्रकरण में भी ‘गणपति’ शब्द का उल्लेख हुआ है। कुछ लोग इसको प्राचीन गणराज्यों के अधिपति का सूचक मानते हैं, किंतु यहाँ यह स्मरणीय है कि वैदिक शिव ‘रुद्र’ के गणोंके प्रमुख या नायकके रूपमें ‘गणपति ‘का उल्लेख विवादरहित है। पुराणसाहित्य तो एकमत हो ‘रुद्र’ के मरुत् आदि असंख्य गणोंके नायक अथवा स्वामीके रूपमें विनायक न्या गणपतिको शिव-परिवारके अंगके रूपमें वर्णित करता है। यही नहीं, शिव परिवारके ये गणपति तो वस्तुतः समस्त देवमण्डलके नायक और प्रथमपूज्य बन गये।
वैदिक ‘रुद्र’ शिवकी भाँति गणपति गणेशमें भी भयंकर और विघ्नकारक स्वरूपके साथ ही मंगलकर्ता, विघ्नहर्ता, सर्वसिद्धिप्रदाता मांगलिक स्वरूपका समावेश है।
पुराणोंमें; विशेषकर ब्रह्मवैवर्तपुराण (गणपतिखण्ड अध्याय १२) तथा शिवपुराण (कुमारखण्ड अध्याय १७) में इनके गजानन बननेकी विभिन्न कथाएँ वर्णित हैं। कहीं इनके शनिदेवके देखनेसे शिरोभंगका अंकन है, तो कहीं स्वयं भगवान् शिवद्वारा इनके सिरको काटनेकी कथा वर्णित है। एक तीसरी प्रमुख कथाके अनुसार स्वयं माता पार्वतीने अपनी कल्पनाको ‘गजशीर्ष ‘का मूर्तरूप दिया था। भगवान् शिवके परमभक्त परशुरामजीद्वारा द्वन्द्वयुद्धमें इनके एक दाँतके खण्डित होनेकी कथा भी ब्रह्मवैवर्तपुराणमें वर्णित है। अग्निपुराणके अध्याय ७१ तथा ३१३ एवं गरुड़पुराणके अध्याय २४ भी श्रीगणेशजीसे सम्बन्धित हैं। इनके अतिरिक्त गणेश-उपपुराण, मुद्गल उपपुराण और गणपतिसंहिता तो गाणपत्य-सम्प्रदाय (श्रीगणेशोपासक सम्प्रदाय) के प्रमुख ग्रन्थ हैं ही। गज या हाथीके सिरसे तात्पर्य श्रीगणेशजीकी गम्भीरता, अद्वितीय बौद्धिक क्षमता और प्रकाण्डपाण्डित्य है। वास्तवमें श्रीगणेश ही गणपति, गणनायक, विनायक, विघ्नकर्ता, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति और ऋद्धि-सिद्धिप्रदाता हैं।
महाभारतके अनुशासन-पर्वके एक सौ पचासवें अध्यायमें गणेश्वरों तथा विनायकोंका स्तुतिसे प्रसन्न होकर विभिन्न पातकोंसे रक्षा करनेका वर्णन है। यहाँ गजानन गणेश और षडानन कार्तिकेय दोनोंको ‘गणाधीश’ और भगवान् शंकरका पुत्र कहा गया है, किंतु गजानन गणेश परब्रह्मका अवतार होनेके कारण आदरणीय ‘महागणाधिपति’ हैं। यही महागणाधिपति अपनी इच्छानुसार अनन्त विश्व तथा अनन्त ब्रह्माण्डोंके सर्जक तथा नियन्त्रक हैं। इसीलिये सभी सम्प्रदाय गणेशजीकी पूजा सर्वप्रथम करते हैं। यही कारण है कि गणेशोपासना तथा गणेश मन्दिर सम्पूर्ण भारतमें समानरूपसे प्रचलित हैं। इन्हीं आदिदेवके नामपर ‘गाणपत्य सम्प्रदाय’ अस्तित्वमें आया।
गणेशजी ॐकारस्वरूप हैं। ओंकारमें ‘ॐ’ के ऊपरवाले भागको मस्तकका वृत्त, नीचेके विशालकाय भागको सृष्टिका विस्तार, सूँड़को नाद तथा मोदक (लड्डू) को बिन्दु मानते हुए इनमें ही सृष्टिकी कल्पना की गयी है। मोदकको असंख्य जीवोंका प्रतीक माना गया है। सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा ही इनके त्रिनेत्रके प्रतीक हैं। एक मान्यता यह भी है कि यदि भगवान् शिव ‘नटराज’ हैं, तो श्रीगणेश ‘नटेश’। असमके सुप्रसिद्ध कामाख्यामन्दिरमें ओंकार नटेशकी प्रतिमा सबका ध्यान बरबस ही आकृष्ट कर लेती है।
आदिशंकराचार्य ने अपनी पंचदेवोपासना में श्रीगणेशको प्रथम स्थान दिया है। उनके अनुसार तर्पण-अभिषेकद्वारा पूजित श्रीगणेश जलतत्त्वके प्रतीक, लिंगरूपसे पूजित शिव पृथ्वीतत्व के प्रतीक, यज्ञ-हवनद्वारा अर्चित आदिशक्ति देवी अग्नितत्त्व की प्रतीक, नमस्कारद्वारा पूजित सूर्य न्वायुतत्त्वके प्रतीक तथा शब्द या नामोच्चारद्वारा सम्पूजित विष्णु आकाशतत्त्वके प्रतीक हैं।
प्रतिमा-विज्ञानमें गजवदन श्रीगणेशकी सिंहारूढ़, मूषकारूढ़ और शेषशय्यारूढ़, चतुर्भुज तथा त्रिनेत्रधारी मूर्तियाँ भारतमें ही नहीं, वरन् भारतके बाहर जावा- सुमात्रा में भी प्राप्त हैं। इस सम्बन्धमें ‘कालिकाकवच’ का यह मंत्र या श्लोक बहुप्रचलित है-
गजेन्द्रवदनं नौमि रक्तविघ्नविदारकम्। पाशांकुशवराभीतिलसद्भुजचतुष्टयम् ॥
( इस श्लोकसे गजवदन श्रीगणेशजीके चार हाथोंमें, ऊपरवाले दो हाथोंमें क्रमशः पाश और अंकुश तथा नीचेके दोनों हाथोंमें क्रमशः वरद और अभयमुद्रा होनेके प्रतिमा- विज्ञानके मूर्ति-निर्माणके सिद्धान्तका समर्थन होता है।
श्रीगणेश-जन्मोत्सव के रूप में गणेशचतुर्थी या गणपतिचतुर्थी का व्रत और उत्सव भारतव्यापी है।
भारतवर्ष में बंगाल की दुर्गापूजा, उड़ीसा की रथयात्रा, सुदूर दक्षिण के पोंगल तथा ब्रजक्षेत्रकी जन्माष्टमीके भव्य क्रममें महाराष्ट्रका गणपति-पूजन विशिष्ट महत्त्व रखता है।‘गणपति बप्पा मोरया’ के जयघोषसे महाराष्ट्रका दिग्- दिगन्त गुंजायमान हो उठता है । मुम्बईके भव्य गणपति- पाण्डालोंकी भव्यता मन मोह लेती है । वहाँ गणेशोत्सवकी पुरातन प्रथा अपनी लोकप्रियताके कारण शिखरपर है। मध्ययुगीन भारतमें छत्रपति शिवाजीके नेतृत्वमें मराठाशक्तिके अभ्युदयके साथ यह प्रथा अपने गौरवपूर्ण स्थानतक पहुँची। अंग्रेजोंके विरुद्ध स्वातन्त्र्य-आन्दोलनके समय इसने ही वहाँके जन-जनको स्वतन्त्रताकी भावनाके नवीन उत्साहसे ओत-प्रोत कर दिया था। यही कारण है कि स्वतन्त्रता- आन्दोलनका गढ़ माने गये पूनाके निकटवर्ती पुरातन अष्टविनायकमन्दिरोंकी परिक्रमाकी पुरातन परम्पराको पुनर्जीवन प्राप्त हुआ।
इन मन्दिरोंके दर्शनका क्रम क्रमशः श्रीमयूरेश्वर, श्रीसिद्धिविनायक, श्रीबल्लालेश्वर, श्रीवरदविनायक, श्रीचिन्तामणि, श्रीगिरिजात्मज, श्रीविघ्नेश्वर और श्रीमहागणपति है।
ज्योतिषशास्त्र में श्रीगणेश को ‘केतु’ ग्रह का इष्टदेव माना जाता है।
श्रीगणेशजीसे सम्बन्धित कुछ प्रमुख ग्रन्थोंमें ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण, शिवपुराण, भविष्यपुराण, अग्निपुराण, लिंगपुराण, गरुड़पुराण, गणेशपुराण, मुद्गलपुराण तथा गणेशसंहिता प्रमुख हैं। इतना ही नहीं, अपितु गणेश-अथर्वशीर्ष, वरदतापनीय– उपनिषद् और गणपति–उपनिषद् श्रुतिका अंश हैं।
आप सबको श्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं ।।