जैनों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है पयुर्षण पर्व। यह पर्व ग्रंथियों को खोलने की सीख देता है। इस आध्यात्मिक पर्व के दौरान कोशिश यह की जाती है कि जैन कहलाने वाला हर व्यक्ति अपने जीवन को इतना मांज ले कि वर्ष भर की जो भी ज्ञात-अज्ञात त्रुटियां हुई हैं, आत्मा पर किसी तरह का मैल चढ़ा है वह सब धुल जाए। संस्कारों को सुदृढ़ बनाने और अपसंस्कारों को तिलांजलि देने का यह अपूर्व अवसर है। इस पर्व में श्वेताम्बर परम्परा में आठ दिन एवं दिगम्बर परम्परा में दस दिन इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनमें व्यक्ति स्वयं के द्वारा स्वयं को देखने का प्रयत्न करता है। ये दिन नैतिकता और चरित्र की चौकसी का काम करते हैं और व्यक्ति को प्रेरित करते हैं वे भौतिक और सांसारिक जीवन जीते हुए भी आध्यात्मिकता को जीवन का हिस्सा बनाएं।
आत्मोत्थान तथा आत्मा को उत्कर्ष की ओर ले जाने वाले इस महापर्व की आयोजना प्रतिवर्ष चातुर्मास के दौरान भाद्रव मास के शुक्ल पक्ष में की जाती है। इस महापर्व मंे निरंतर धर्माराधना करने का प्रावधान है। इन दिनों जैन श्वेतांबर मतावलंबी पर्युषण पर्व के रूप में आठ दिनों तक ध्यान, स्वाध्याय, जप, तप, सामायिक, उपवास, क्षमा आदि विविध प्रयोगों द्वारा आत्म-मंथन करते हैं। दिगंबर मतावलंबी दशलक्षण पर्व के रूप मंे दस दिनों तक इस उत्सव की आराधना करते हैं। क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग तथा ब्रह्मचर्य इन दस धर्माें के द्वारा अंतर्मुखी बनने का प्रयास करते हैं। जो आदमी के जीवन की सारी गंदगी को अपनी क्षमा आदि दस धर्मरूपी तरंगों के द्वारा बाहर करता है और जीवन को शीतल एवं साफ-सुथरा बनाता है। जब दो वस्तुएं आपस में टकराती हैं, तब प्रायः आग पैदा होती है। ऐसा ही आदमी के जीवन में भी घटित होता है। जब व्यक्तियों में आपस में किन्हीं कारणों से टकराहट पैदा होती है, तो प्रायः क्रोधरूपी अग्नि भभक उठती है और यह अग्नि न जाने कितने व्यक्तियों एवं वस्तुओं को अपनी चपेट में लेकर जला, झुलसा देती है। इस क्रोध पर विजय प्राप्त करने का श्रेष्ठतम उपाय क्षमा-धारण करना ही है। पर्युषण पर्व का प्रथम ‘उत्तम क्षमा’ नामक दिन, इसी कला को समझने, सीखने एवं जीवन में उतारने का दिन होता है।
इसी तरह अहंकार आदमी के अंतःकरण में उठते हैं। इसी अहंकार के कारण आदमी पद और प्रतिष्ठा की अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है, जो उसे अत्यंत गहरे गर्त में धकेलती है। पर्युषण पर्व का द्वितीय ‘उत्तम मार्दव’ नामक दिवस, इसी अहंकार पर विजय प्राप्त करने की कला को समझने एवं सीखने का होता है। जैन मनीषियों ने कहा है कि सुख और शांति कहीं बाहर नहीं, अपने अंदर ही हैं और अपने घर में प्रवेश पाने के लिए वक्रता या टेड़ेपन को छोड़ना परम अनिवार्य है, जैसे सर्प बाहर तो टेड़ा-मेड़ा चलता है, पर बिल में प्रवेश करते समय सीधा-सरल हो जाता है, वैसे ही हमें भी अपने घर में आने के लिए सरल होना पड़ेगा। सरल बनने की ही कला सिखाता है ‘उत्तम आर्जव धर्म।’ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूपी पांचों पापों के वशीभूत होकर प्राणी दिन-रात न्याय और अन्याय को भूलकर धन आदि के संग्रह में सत्य को धारण करने वाला हमेशा अपराजित, सम्माननीय एवं श्रद्धेय होता है। दुनिया का सारा वैभव उसके चरण चूमता है। यह सब ‘उत्तम सत्य धर्म’ की ही महिमा है।जैसे किसी भी वाहन को मंजिल तक सही-सलामत पहुंचाने के लिए नियंत्रण की आवश्यकता होती है, वैसे ही कल्याण के पथ पर चलने वाले प्रत्येक पथिक के लिए संयम की परम आवश्यकता होती है। इंद्रिय एवं मन को जो सुख-इष्ट होता है, वह वैषयिक सुख कहलाता है। जो मीठे जहर की तरह सेवन करते समय तो अच्छा लगता है, पर उसका परिणाम दुःख के रूप में ही होता है। ऐसे दुःखदायक वैषयिक सुख से ‘उत्तम संयम धर्म’ ही बचाता है।
अज्ञानता एवं लोभ-लिप्सा के कारण जीव, धन, संपत्ति आदि को ग्रहण करता है। ये ही पदार्थ दुःख, अशांति को बढ़ाने का कारण बनते हैं। ऐसे पर पदार्थों को छोड़ना ही ‘उत्तम त्याग धर्म’ कहलाता है। जब कोई साधक क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पर पदार्थों का त्याग आदि करते हैं और इनसे जब उनका किंचित भी संबंध नहीं रहता तो उनकी यह अवस्था स्वाभाविक अवस्था कहलाती है। इसे ही ‘उत्तम आकिंचन्य धर्म’ कहा गया है। पर-पदार्थों से संबंध टूट जाने से जीव का अपनी आत्मा जिसे ब्रह्म कहा जाता है में ही रमण होने लगता है। इसे ही ‘उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म’ कहा जाता है। ये ही धर्म के दस लक्षण हैं, जो पर्युषण पर्व के रूप में आकर न केवल जैनों को, अपितु समूचे प्राणी-जगत को सुख-शांति का संदेश देते हैं। पर्युषण की आराधना के इन दिनों मंे व्यक्ति अपने आपको शोधन एवं आत्मचिंतन के द्वारा वर्षभर के क्रिया-कलापों का प्रतिक्रमण प्रतिलेखन करता है।
विगत वर्ष में हुई भूलों को भूलकर चित्तशुद्धि का उपाय करता है। सभी व्यक्ति एक दूसरे से क्षमा का आदान-प्रदान करते हैं, जिससे मनोमालिन्य दूर होता है और सहजता, सरलता, कोमलता, सहिष्णुता के भाव विकसित होते हैं। पर्युषण पर्व एवं दसलक्षण पर्व के आयोजनों के साथ मुख्य रूप से तप और मंत्र साधना को जोड़ा गया है। संयम, सादगी, सहिष्णुता, अहिंसा, हृदय की पवित्रता से हर व्यक्ति अपने को जुड़ा हुआ पाता है और यही वे दिन हैं जब व्यक्ति घर और मंदिर दोनों में एक सा हो जाता है। छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं का उत्साह दर्शनीय होता है। आहार-संयम, उपवास एवं अठाई तप के द्वारा इस महापर्व को मनाते हैं। इस अवसर पर जैन मंदिरों, स्थानकों, उपासना स्थलों, जिनालयों की रौनक बढ़ जाती है। संपूर्ण जैन समाज में साधु-साध्वियों, उपासकों, विद्वत्जनों के प्रवचनों के द्वारा धर्म की विशेष आराधना होती है। श्रावक-श्राविकाएं भी अपना धार्मिक दायित्व समझकर अध्यात्म की ओर प्रयाण करते हैं। अनेक स्थानों पर इन दिनों व्यापारिक गतिविधियां सीमित हो जाती हैं। कई प्रतिष्ठान विशेष दिनों के आयोजन पर अवकाश भी रखते हैं। श्रेष्ठीजन अपने कर्मचारियों को भी धर्माराधना हेतु प्रेरित करते हैं।
पयुर्षण पर्व मेें क्षमा, मैत्री, करुणा, तप, मंत्र साधना आदि पर विशेष बल दिया जाता है। क्षमा का सर्वाधिक महत्व इस पर्व के साथ जुड़ा है- मैं सब जीवों कोे क्षमा करता हूं, सब जीव मुझे क्षमा करते हैं। मेरी सब प्राणियों से मित्रता है, किसी से मेरा वैर-भाव नहीं है। प्रभु महावीर के इस मैत्री मंत्र के साथ सामूहिक क्षमापना-क्षमावाणी दिवस को समूचा जैन समाज विश्व मैत्री दिवस के रूप में मनाता है। पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवन शैली का प्रयोग है। आज भौतिकता की चकाचौंध में, भागती जिंदगी की अंधी दौड़ में इस पर्व की प्रासंगिकता बनाये रखना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए जैन समाज संवेदनशील बने विशेषतः युवा पीढ़ी पर्युषण पर्व की मूल्यवत्ता से परिचित हो और वे सामायिक, मौन, जप, ध्यान, स्वाध्याय, आहार संयम, इन्द्रिय निग्रह, जीवदया आदि के माध्यम से आत्मचेतना को जगाने वाले इन दुर्लभ क्षणों से स्वयं लाभान्वित हो और जन-जन के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत करे। पर्युषण महापर्व मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमंे आत्मा की उपासना की जाती है। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है।