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बिहार की राजनीतिक कुर्सी: 23 मुख्यमंत्रियों का उतार-चढ़ाव और 2025 चुनाव की कसौटी पर नीतीश vs तेजस्वी

बिहार की राजनीतिक कुर्सी: 23 मुख्यमंत्रियों का उतार-चढ़ाव और 2025 चुनाव की कसौटी पर नीतीश vs तेजस्वी

*हरिशंकर पाराशर*
विशेष संवाददाता, पटना | 3 नवंबर 2025

पटना: स्वतंत्र भारत के सबसे अस्थिर राजनीतिक दृश्यों में से एक बिहार की विधानसभा ने 78 वर्षों में 23 मुख्यमंत्रियों को जन्म दिया है। यह संख्या न केवल राज्य की राजनीतिक अस्थिरता का प्रमाण है, बल्कि सामाजिक न्याय, विकास और सत्ता-खेल की जटिलता को भी उजागर करती है। 6 और 11 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव इस परंपरा को तोड़ने या मजबूत करने का अवसर ला रहे हैं, जहां राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर है। नवीनतम ओपिनियन पोल्स के अनुसार, एनडीए स्लिम बहुमत हासिल कर सत्ता बरकरार रख सकता है, लेकिन तेजस्वी यादव की लोकप्रियता ने समीकरण उलटने की गुंजाइश पैदा कर दी है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: कांग्रेस से जनता दल तक का सफर

बिहार की मुख्यमंत्री पद की शुरुआत ‘बिहार केमरात्रू’ श्री कृष्ण सिन्हा से हुई, जिन्होंने 1947 से 1961 तक 14 वर्षों तक शासन किया। भूमि सुधार और शिक्षा विस्तार जैसे कदमों से उन्होंने राज्य की नींव मजबूत की। उनके बाद का दौर अस्थिरता का रहा—दीप नारायण सिंह का 18 दिवसीय कार्यकाल से लेकर सतीश प्रसाद सिंह के मात्र चार दिनों तक। कुल 23 मुख्यमंत्रियों में कांग्रेस के 10, जनता दल परिवार के 6 और अन्य दलों के शेष रहे। राष्ट्रपति शासन 12 बार लगा, जो विधायी अस्थिरता का स्पष्ट संकेत है।

इस सूची में करपूरी ठाकुर जैसे ‘जननायक’ उभरते हैं, जिन्होंने 1970-71 और 1977-79 में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की नींव रखी। वहीं, लालू प्रसाद यादव का 1990-97 का काल सामाजिक न्याय का प्रतीक बना, लेकिन चारा घोटाले ने उनकी छवि धूमिल की। राबड़ी देवी ने तीन कार्यकालों (1997-2005) में महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। वर्तमान में नीतीश कुमार सबसे लंबे समय (कुल 19 वर्ष से अधिक) तक सेवा दे चुके हैं, जिनके सड़क नेटवर्क और शराबबंदी जैसे फैसलों ने विकास की गति पकड़ी। हालांकि, उनके गठबंधन-परिवर्तनों ने ‘पलटू राम’ की उपाधि दिलाई।

| प्रमुख मुख्यमंत्री | कार्यकाल | प्रमुख योगदान | सत्ता प्राप्ति/हानि |
|——————–|———-|—————|———————|
| श्री कृष्ण सिन्हा | 1947-61 | भूमि सुधार, शिक्षा | स्वतंत्रता के बाद बहुमत; निधन |
| करपूरी ठाकुर | 1970-71, 1977-79 | OBC आरक्षण | गठबंधन बहुमत; इस्तीफा |
| लालू प्रसाद यादव | 1990-97 | ग्रामीण रोजगार | जनता दल बहुमत; घोटाला/राष्ट्रपति शासन |
| नीतीश कुमार | 2000-वर्तमान | इंफ्रास्ट्रक्चर, शराबबंदी | गठबंधन; वर्तमान में पदस्थ |

2025 चुनाव: ओपिनियन पोल्स की रोशनी में अनुमान

चुनाव से ठीक तीन दिन पहले जारी जेवीसी पोल के अनुसार, एनडीए (जद(यू)-बीजेपी) को 120-140 सीटें मिल सकती हैं, जो 243 सदस्यीय सदन में स्लिम बहुमत सुनिश्चित करेगी। वहीं, महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस) को 100-110 सीटों का अनुमान है। मुख्यमंत्री पद पर लोकप्रियता में तेजस्वी यादव शीर्ष पर हैं—33-40 प्रतिशत मतदाता उन्हें पसंद करते हैं, जबकि नीतीश कुमार 25 प्रतिशत पर हैं। चिराग पासवान तीसरे स्थान पर हैं।

यह पोल जाति सर्वे (2022) के प्रभाव को रेखांकित करता है, जहां अत्यंत पिछड़े वर्ग (ईबीसी) की 63 प्रतिशत आबादी ने वोट बैंक को एकजुट किया। एनडीए विकास (रोजगार, बाढ़ नियंत्रण) पर दांव लगा रहा है, जबकि महागठबंधन आरक्षण विस्तार और युवा अपील पर। सोशल मीडिया पर बहस गर्म है—कुछ विश्लेषक एनडीए को 150-180 सीटें देते हैं, तो कुछ कांग्रेस-नीत गठबंधन की अप्रत्याशित जीत की भविष्यवाणी करते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी जैसे राष्ट्रीय नेता प्रचार में उतर चुके हैं, जो चुनाव को राष्ट्रीय पटल पर उछाल दे रहा है। हालांकि, चिराग पासवान की स्वतंत्र रणनीति (2020 जैसी) एनडीए के लिए खतरा बन सकती है।

विश्लेषण: जाति vs विकास का द्वंद्व

बिहार की राजनीति हमेशा जाति-आधारित रही, लेकिन 2025 में विकास का कारक निर्णायक सिद्ध हो रहा है। नीतीश कुमार की अनुभवपूर्ण छवि एनडीए की ताकत है, लेकिन उनकी उम्र (74 वर्ष) और गठबंधन-बदलाव युवाओं को निराश कर रहे हैं। तेजस्वी यादव, मात्र 36 वर्षीय, नई ऊर्जा का प्रतीक हैं—पिता लालू की विरासत को आधुनिक वादों से जोड़ते हुए। यदि महागठबंधन जीता, तो तेजस्वी पहले युवा मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जो राज्य को नई दिशा देगा।

कुल मिलाकर, यह चुनाव ‘स्थिरता vs परिवर्तन’ का है। ओपिनियन पोल्स एनडीए को बढ़त देते हैं, लेकिन ग्रामीण मतदाता और प्रवासी बिहारियों के वोट अंतिम क्षण में सब बदल सकते हैं। बिहार को चाहिए एक ऐसा नेतृत्व जो जाति की दीवारें तोड़े और समावेशी विकास सुनिश्चित करे।

हरिशंकर पाराशर राजनीतिक विश्लेषक हैं। यह विश्लेषण नवीनतम सर्वेक्षणों पर आधारित है।

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